गांव से ही सुधरेंगे हालात


ग्रामीण अर्थव्यवस्था ही भूख से लड़ने का कारगर हथियार
‘कोविड-19’ ने कृत्रिम संपत्ति आधारित अर्थव्यवस्था पर गहरी चोट कर हमें झकझोर दिया है। अब हमें तय करना है कि इस बहाने हम सोचें कि कृत्रिम संपत्ति जुटाने की ये अंधी दौड़ हमें कहां लेकर जा रही है। यही सवाल कौंध रहा है कि शहरों की ओर पलायन करने वाली श्रमशक्ति को क्या वापस गांव में पहुंचने पर रोका जा सकता है। जब दुनियाभर में आर्थिक व्यवस्था लड़खड़ा रही है ऐसे में कृषि आधारित ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर ही आकर नजरें टिक रही हैं। लेकिन पूंजी आधारित अर्थव्यवस्था के सामने पीछे मुड़कर देखने से ग्रामीण अर्थव्यवस्था भी खोखली ही नजर आ रही है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की रिपोर्ट और भी डराने वाली है जिसमें कहा गया है कि लॉकडाउन के चलते भारत में असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले 40 करोड़ लोगों की नौकरियों और उनकी आमदनी पर असर पड़ेगा और वे गरीबी के दुष्चर्क में फंस सकते हैं। यही नहीं संयुक्त राष्ट्र संगठन ने तो विश्वभर में करीब 20 करोड़ पूर्णकालिक नौकरियां हाथ से जाने और पौने तीन अरब कामगारों का रोजगार छिनने की संभावना जताई है।
आर्थिक उदारीकरण के दौर में सबसे अधिक गांव की इकाई को छिन्न-भिन्न करने का काम किया और तब से लेकर आज तक यह बदस्तूर जारी है। भले ही सरकार के भंडार अन्न से भरे हैं लेकिन सबसे मुसीबत में गांव ही हैं और उसमें भी किसान। खेती की जोत लगातार कम हो रही है। गांव में कृषि आधारित धंधे चौपट हो गए या कहें कि बेतरतीब विकास की भेंट चढ़ गए। कुटीर उद्योग गांव से धीरे-धीरे शहरों में शिफ्ट हो गए। नतीजा गांव से रोजगार की आस में भारी मात्रा में शहरों में पलायन हुआ।
एशिया फार्मर्स कॉर्डिनेशन कमेटी के कॉर्डिनेटर युद्धवीर कहते हैं कि सरकारें विकास की अंधी दौड़ में ग्रामीण विकास की योजनाओं को तिलांजलि देती चली गईं। खेती घाटे का सौदा होने लगी। इसलिए पिछले दो दशकों में गांवों में भारी संख्या में एक बड़ी आबादी शहरों में पलायन कर गई। उनका मानना है कि गांव से पलायन करने के लिए ऐसी आबादी के लिए स्वरोजगार के अवसर पैदा करने होंगे और उनको स्वावलंबी बनाने के कार्यक्रम चलाने होंगे, वरना ये झटका हम झेल भी गए तो आने वाले दिनों में इसका बड़ा खामियाजा उठाना होगा।
आंकड़े बता रहे हैं कि आजादी के बाद देश के विकास में खेती का योगदान 50 फीसदी था लेकिन केंद्र और राज्य सरकारों की उपेक्षा के चलते आज यह योगदान मात्र 13 फीसदी रह गया है। प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से 65 फीसदी जनता को रोजगार दिलाने वाला यह क्षेत्र विकास के नाम पर तथाकथित उद्योग को प्रोत्साहन देने के नाम पर धकिया कर किनारे फेंक दिया गया।  भारत में किसान-परिवारों की संख्या तकरीबन 9 करोड़ 20 लाख हैं। यह कुल ग्रामीण-परिवारों की संख्या का 57.8  फीसदी है। जनगणना 2011 के आंकड़ों की पड़ताल करने पर पता चलता है कि साठ के दशक के बाद देशभर में बड़ी संख्या में किसान कम हो रहे हैं। वर्ष 2001 से 2011 के बीच यानि दस सालों में लगभग 86 लाख किसान कम हो गए। इसका मतलब ये हुआ कि 2465 किसान यानि ढाई हजार के करीब किसान हर दिन इस देश में खेती छोड़ रहे हैं। इन किसानों ने खेती छोड़ी, ये कृषि मजदूर बने, शहरों में पलायन कर गए, दूसरे गांवों में जाकर बस गए, भूमि अधिग्रहण होने के बाद किसानों में गिनती नहीं रही, इस बात का सटीक आंकड़ा सरकार के पास उपलब्ध ही नहीं है। वहीं वर्ष 2001 से 2011 के बीच यानि दस सालों में लगभग 375 लाख कृषि मजदूर बढ़ गए। इसका मतलब ये हुआ कि देश में हर दिन 10, 273 के करीब लोग खेतिहर मजदूर हो रहे हैं। यही आबादी शहरों की ओर पलायन करने को मजबूर हुई। अब यह श्रमशक्ति गांव लौटी है। स्थितियां सामान्य होने पर भी आधी से अधिक श्रमशक्ति के वापस लौटने की संभावना कम ही है ऐसे में दो वक्त की रोटी का जुगाड़ गांव में भी नहीं हो पाने की स्थिति में यह गरीबी के दुष्चर्क में फंसेगी, जिसका खामियाजा समाज में चोरी, लूट और अन्य अपराधों की शक्ल में दिखाई दे सकता है।
युद्धवीर सिंह कहते हैं कि चने का एमएमपी 4600 रुपये प्रति कुंतल है लेकिन उन्हें 3500 रुपये के हिसाब से बेचना पड़ा। गेहंू का है वहां भी उत्तम क्वालिटी का गेहूं 3000 रुपये प्रति कुंतल के बजाए 2000 रुपये में बचेना पड़ा। यही हाल सोयाबीन, सरसों व अन्य फसलों का है। उन्होंने कहा कि किसान पूरी फसल को घर में नहीं रोक सकता इसके लिए सरकारों को खरीद सुनिश्चित करनी चाहिए।
उत्तर प्रदेश किसान समृद्धि आयोग के सदस्य धर्मेंद्र मलिक का मानना है कि गांव लौटे श्रमिकों और खेतिहर मजदूरों को नरेगा से जोड़कर उनकी श्रमशक्ति का सही उपयोग किया जा सकता है। यह संख्या अभी 13 करोड़ है, इसे बढ़ाए जाने की जरूरत है। खेती-बाड़ी में जुट रहे मजदूरों को भी ग्राम पंचायतों के माध्यम से नरेगा के माध्यम से भुगतान सुनिश्चित कराने का फार्मूला सरकार को लागू करना होगा। इससे तत्काल भूख से जूझ रहे 40 करोड़ श्रमिकों को राहत मिल सकती है। ऐसे लोगों के राशन कार्ड बनाने की दिशा में भी प्रभावी कदम  उठाने होंगे।
किसानों के लिए काम कर रही पीजेंट वेलफेयर सोसायटी के संयोजक अशोक बालियान कहते हैं कि गरीब किसानों को तत्काल मदद की दरकार है। यूपी में ही 10 हजार करोड़ गन्ने का भुगतान चीनी मिलों पर बकाया हो चुका है जो आधे से अधिक है। भुगतान तुरंत दिलाना होगा। किसान क्रेडिट कार्ड पर लोन की राशि दो गुना कर उस पर ब्याज राशि घटा उसकी अवधि एक साल से दो साल करनी होगी। ऐसा नहीं हुआ तो किसान ऋण के जाल से नहीं निकल पाएगा। नाबार्ड जैसी योजनाओं को इमानदारी से लागू करना होगा। किसान को फसल की खरीद की गारंटी भी सरकार को सुनिश्चित करनी होगी वरना एमएसपी से कम रेट पर फसल बेच वह खेती से फिर हतोत्साहित हुआ तो खामियाजा देश को ही उठाना होगा।
ऑल इंडिया मैन्यूफैर्क्स एसोसिएशन के आंकड़े डराने वाले हैं। आंकड़ों के मुताबिक लॉकडाउन चार से आठ हफ्ते बढ़ा तो सूक्ष्य, लघु और मझोले (एमएसएमई) उद्योग करीब 25 फीसदी बंद हो जाएंगे, जिनकी संख्या 1.7 करोड़ बैठती है। देश में कुल एमएसएमई 6.9 करोड़ हैं। इससे हर क्षेत्र में छंटनी होगी। पांच करोड़ लोगों को नौकरी देने वाले होटल उद्योग में सवा करोड़ नौकरी जा सकती हैं। 4.6 करोड़ लोगों को रोजगार देने वाले खुदरा क्षेत्र में 1.1 करोड़ नौकरियों पर संकट है। इसमें दिहाड़ी मजदूरों को सबसे बड़ी कीमत चुकानी होगी। वहीं, देश के 6.5 लाख गांव में खेती किसानी में लगे खेतिहर मजदूरों पर भी संकट आएगा जिनकी संख्या करोड़ों में है।
जाहिर है ऐसे में नाबार्ड जैसी योजनाओं को धरातल पर उतारना होगा और ग्राम पंचायतों को और अधिकार देने होंगे ताकि जरूरतमंद हाथों तक सहायता राशि पहुंच सके और छोटे ऋण के सहारे गांव में फिर से कुटीर उद्योग जैसे धंधे पनप सकें। इसी केसाथ इन इलाकों में बनाए उत्पाद को खरीदने और बेचने के लिए भी बाजार उपलब्ध कराना होगा। साथ ही बड़ी कंपनियों को ऐसे क्लस्टर में लाइसेंस से ‘ना’ भी करना पड़ेगा। ऐसे हालात पैदा हुए तभी भारत की आर्थिक स्थिति सुधरने की आस लगाई जा सकती है।