१९९२ में धौलाना (गाजियाबाद) के गांव ढहाना में हुई एक अपराधिक वारदात की जांच के दौरान जांच अधिकारी जो तत्कालीन क्षेत्राधिकारी (सीओ) थे ने वारदात में इस्तेमाल हथियारों को फोरेंसिक जांच के लिए नहीं भेजा। अदालत ने इस घटना के दोषियों को ताउम्र जेल में रहने की सजा दी है और क्षेत्राधिकारी भूपेंद्र सिंह के खिलाफ जांच में लापरवाही बरतने का मुकदमा दर्ज कराया है। आगरा के जगदीशपुरा में ११वीं की छात्रा से दुष्कर्म मामले में तहरीर बदलने और आरोपियों को हिरासत में लेकर थाने से ही छोड़ देने वाले थानाप्रभारी व चौकी प्रभारी को आई जी ए एस गणेश के निर्देश पर निलंबित कर दिया गया है।
इन दो घटनाओं की चर्चा इसलिए कि आखिर पुलिस की कार्यशैली है क्या। पुलिस किस प्रकार अपने कार्य को अंजाम देती है। उसके ऊपर अपराध मुक्त समाज का जो गुरूत्तर दायित्व है उसको दो तरह से पूरा किया जा सकता है। वास्तव में जांच कर, सही अपराधियों को पकड़ कर और अदालत में उचित पैरवी कर।दूसरा तरीका है दिखावे का। दिखाई तो दे कि जांच, गिरफ्तारी और पैरवी हो रहे हैं परंतु साधारण आदमी के धड़ पर हाथी का सिर लगाकर गणेश बनाने की जो विधि पुलिस ने अपना रखी है उससे खुद की पीठ ही थपथपाई जा सकती है। सही मायने में ऐसा करने से अपराध बढ़ता है, अपराधियों का हौंसला भी। किसी भी जेल में माफियाओं की ऐश होना अलग विषय है परंतु प्रत्येक जेल में ऐसे बंदियों का एक बड़ा प्रतिशत है जिन्हें पुलिस की खानापूर्ति के लिए जेल जाना पड़ा।ऐसे लोगों में से अनेक जेल से बाहर आकर पहली बार अपराध करते हैं। बात जांच से चली थी और जांच पर आकर अटकी है। पुलिस की जांच करने की की भी जांच होनी चाहिए।
साभार (नेक दृष्टि हिंदी साप्ताहिक नौएडा)